भारतीय संविधान में आपातकालीन प्रावधान: उनके प्रकार, लागू करने की प्रक्रिया, और समाज पर पड़ने वाले प्रभावों का विस्तृत विश्लेषण

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भारत में जब भी एक ऐसी परिस्थिती बनती है, जिसमें उसकी सुरक्षा को लेकर कोई चिंता का विषय बन जाता है, जैसे कि बाहरी आक्रमण या युद्ध की स्थिति बनती है या किसी राज्य में जब उस राज्य की सरकार संविधान के मूल्यों के अनुरूप कार्य न कर पाए तो ऐसी परिस्थितीयों में भारत के संविधान में आपातकाल लागू करने का प्रावधान दिया गया है। आपातकालीन प्रावधान भारतीय संविधान के भाग 18 में अनुच्छेद 352 से 360 तक निहित है। संविधान के निर्माताओं ने इन प्रावधानों को विशेष रूप से संविधान मे जोड़ा है ताकि अनियमित परिस्थितियों मे देश की सुरक्षा सुचरू रूप से की जा सके। आपातकाल की स्थिती में राज्य सरकार पूर्णतः केंद्र के नियंत्रण में चली जाती है। यह प्रावधान देश के संघीय रूप को बदलकर(आपातकाल की समयावधि तक) एक इकाई के रूप मे परिवर्तित कर देते है। देखा जाए तो आपात्कालीन प्रावधान महत्तवपूर्ण स्थान रखते हैं और यह देश की सुरक्षा के लिए बेहतर विकल्प है लेकिन कई बार देखा गया है इनका कई मौको पर दुरूपयोग भी किया गया है।

भारत मे कितने प्रकार के प्रावधानों का संविधान मे उल्लेख किया गया है?

संविधान तीन प्रकार की आपातकालीन स्थितियाँ निर्धारित करता है:

  1. राष्ट्रीय आपातकाल:- युद्ध, बाहरी आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह के कारण आयी परिस्थिति मे संविधान  के अनुच्छेद 352 ‘राष्ट्रीय आपातकाल’ का प्रावधान दिया गया है।अनुच्छेद 352 राष्ट्रीय आपातकाल को  दर्शाने के लिए ‘आपातकाल की उद्घोषणा‘ शब्द का प्रयोग करता है।
  2. राष्ट्रपति शासन:-  राज्यों में संवैधानिक तंत्र की विफलता के कारण आपातकाल अनुच्छेद 356 मे राज्य में राष्ट्रपति का शाशन लागो कितया जाता है। इसे दो अन्य नामों-’राज्य आपातकाल’ या ‘संवैधानिक आपातकाल’ से भी कहा जाता है। याद रहे की संविधान इस स्थिति के लिए ‘आपातकाल’ शब्द का उपयोग नहीं करता है।
  3. वित्तीय आपातकाल:- यदि भारत मे वित्तीय संकट आ जाए या ऐसा प्रतीत हो की देश कंगाली की ओर बढ़ रहा है,ऐसे परिस्थित्यों के निवारण हेतु संविधान के अनुच्छेद 360 में ‘वित्तीय आपातकाल’ का प्रावधान है।

राष्ट्रिय आपातकाल

घोषणा के आधार

राष्ट्रीय आपातकाल को दो भागो मे, स्थिति के अनुरूप, विभाजित किया है, संविधान मे विभाजन स्पष्ट रूप से नहीं किया गया है परंतु स्थिति के अनुरूप इनके प्रावधान का उपयोग किया जाता है।

  • जब ‘युद्ध’ या ‘बाह्य आक्रमण’ हो ऐसी स्थिति मे यदि राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा की जाती है, तो इसे ‘बाह्य आपातकाल’ कहा जाता है।
  • जब देश मे ‘सशस्त्र विद्रोह’ हो या ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हो जाए जिनसे सशस्त्र विद्रोह होने का भय हो, यदि इन आधारों पर राष्ट्रीय आपातकाल घोषणा की जाती है तो इसे ‘आंतरिक आपतकाल’ कहा जाता है।
  • मूल संविधान में  ‘आंतरिक अशांति’ भी एक आधार था जिसेके द्वारा राष्ट्रपति राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा करने हेतु सुनिश्चित कर सके। इसे 1978 मे 44वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा हटा दिया गया और उसे  ‘सशस्त्र विद्रोह’ शब्द से बादल दिया गया। इंदिरा गांधी के शासन में राष्ट्रपति ने इसी ‘आंतरिक अशांति’ के आधार पर अनुच्छेद 352 के  प्रावधान का उपयोग करके देश में राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा की थी

संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत, भारत के राष्ट्रपति राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा कर सकते हैं यदि:-

  • भारत या देश के किसी हिस्से को युद्ध या बाहरी आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह से खतरा हो (राष्ट्रपति के पास यह शक्ति होती हे की वे इन घटनाओं के होने से पूर्व भी, खतरो ने निवारण हेतु, राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा कर सकते हैं)। 
  • भारत के राष्ट्रपति  के पास यह संवैधानिक शक्ति है  की व अलग-अलग परिस्थितियों के आधार पर अलग-अलग उद्घोषणा लागो कर सकते है। राष्ट्रपति युद्ध, बाहरी आक्रमण, सशस्त्र विद्रोह के अनुरूप  उद्घोषणाएँ भी जारी कर सकता है। यदि राष्ट्रपति द्वारा पूर्व मे हो कोई उद्घोषणा जारी की गई हैं फिर भी वह एक नयी उद्घोषणा जारी कर सकते है। संविधान में यह प्रावधान 38वें संशोधन अधिनियम, 1975 स्थापित किया गया था।
  • 42वां संशोधन अधिनियम,1976 के द्वारा संविधान मे प्रावधान जोड़ा गया था की, यह राष्ट्रपति के ऊपर निर्भर है की वह राष्ट्रीय आपातकाल की उद्घोषणा पूरे देश या देश के किसी एक हिस्से में कर सकते हैं। ऑस प्रावधान से यह सुनिश्चित किया गया की राष्ट्रपति एक सीमित हिस्से मे अपपातकाल लागू कर सके।
  • राष्ट्रपति केबिनेट की लिखित सलाह लेने के बाद ही राष्ट्रपति आपत्काल की घोषणा कर सकते हैं यदि कैबिनेट सलाह लिखित में ना दें तो राष्ट्रपति इन प्रावधानों का उपयोग नहीं कर सकते। जैसा कि 1975 में इंदिरा गांधी ने अपने मंत्रीमंडल की सलाह लिए बिना ही राष्ट्रपति को यह आदेश दे दिया था कि वह राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा करें, उद्घोषणा के बाद केंद्रीय मंत्रीमंडल को यह सूचना दी गई थी। लेकिन 1978 में 44वें संविधान संशोधन अधिनियम पारित हुआ जिसमें यह सुनिश्चित किया गया कि केवल प्रधानमंत्री के निर्णय से ही राष्ट्रपति राष्ट्रीय आपातकाल की उदघोषणा नहीं कर सकते इसके लिए उन्हें केंद्रीय मंत्रीमंडल की सलाह लेना अनिवार्य है, और वह भी लिखित में।

38वें संविधान संशोधन अधिनियम,1975 द्वारा यह सुनिश्चित किया गया की राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा की न्यायिक समीक्षा नहीं की जा सकती। यह प्रावधान 44वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा हटा दिया गया।

इसके अलावा मिल्स मामला (1980) में भी सुप्रीम कोर्ट ने यह सुनिश्चित किया कि राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा को चुनौती दी जा सकती है अगर वह पूरी तरह से दुर्भावना के आधार पर लागू किया गया हो।

संसदीय अनुमोदन एवं अवधि

 मूल संविधान में संसद द्वारा आपत्काल के उदघोषणा के जारी होने के बाद अनुमोदन की अवधि 2 महीने थी, लेकिन 44 वें संविधान संशोधन अधिनियम 1978 द्वार इसे कम करके एक महीने कर दिया गया, यानी संसद के दोनों सदनों द्वारा उद्घोषणा को 1 महीने के भीतर अनुमोदित किया जाना अनिवार्य है।यदि आपातकाल की उद्घोषणा जारी हो चुकी है और उद्घोषणा को मंजूरी दिये बिना 30 दिन के भीतर यदि लोकसभा विघटित हो गई हो या लोकसभा भंग हो जाती है, तब उद्घोषणा का जीवनकाल  लोकसभा के पुनर्निर्माण के बाद उसकी पहली बैठक से 30 दिनों तक रहता  है, पर शर्त इस बीच राज्यसभा ने इसे मंजूरी दे दी हो। 

यदि आपात्काल की घोषणा करनी हो या उसे ज्यादा रखने की मंजुरी देनी हो तो संसद में किसी भी सदन द्वारा विशेष बहुमत से पारित किया जाना चाहिए। मूल संविधान में इस प-प्रस्ताव को संसद द्वारा साधारण बहुमत से भी  पारित किया जा सकता था लेकिन विशेष बहुमत का  प्रावधान 44वें संशोधन अधिनियम, 1978 द्वारा जोड़ा गया था। 

राष्ट्रपति उद्घोषणा कब रद्ध की जाती है

  • राष्ट्रपति आपातकाल की उद्घोषणा को एक अन्य उद्घोषणा द्वार रद्द कर सकता है जिसे संसद की अनुमति की आवश्यकता नहीं होती।
  • यदी लोकसभा एक प्रस्ताव पारित करती है कि वह उद्घोषणा को जारी रखने को अस्वीकार करना चाहती है या जारी नहीं रखना चाहती है,राष्ट्रपति को उद्घोषणा को रद्द करना अनिवार्य होगा  यह प्रावधान भी 44वें संशोधन अधिनियम, 1978 द्वारा जोड़ा गया था। संशोधना से पहले लोकसभा का इस परिस्थिति मे कोई भी निर्णय या हस्तक्षेप का प्रावधान नहीं था। 
  • 44 संविधान संशोधन अधिनियम, 1978 द्वारा यह भी प्रदान किया गया, कि जब लोकसभा के कुल सदस्यों की संख्या का 1/10 सदस्य लोकसभा के स्पीकर या राष्ट्रपति को (जब सदन सत्र में ना हो) एक लिखित नोटिस देते हैं की वह उद्घोषणा की निरंतरता को अस्वीकार करना चाहते हैं। तो इस  प्रस्ताव पर विचार करने के उद्देश्य के लिए 14 दिनों के भीतर सदन की एक विशेष बैठक बुलानी होगी।

उद्घोषणा को जारी रखने की अस्वीकृति का प्रस्ताव को केवल लोकसभा द्वारा पारित किया जा सकता है वह भी केवल साधारण बहुमत द्वारा, परंतु  उद्घोषणा को जारी रखने की मंजूरी देने वाले प्रस्ताव को संसद के दोनों सदनों द्वारा विशेष बहुमत से पारित किए जाने की आवश्यकता होती है।

राष्ट्रीय आपातकाल के प्रभाव

केंद्र एवं राज्य के संबंधों पर

  • जब आपात्काल की घोषना ना हो तो केंद्र केवल कुछ ही मामलों मे राज्य को निर्देश दे सकता है, लेकिन यदि आपत्काल की घोषणा हो चुकी है तो केंद्र राज्य को किसी भी मामले में कार्यकारी शक्ति का प्रयोग करने का आदेश या निर्देश दे सकता है।
  • आपातकाल के दौरन राज्य सरकारे केंद्र के पूर्ण नियंत्रण में आ जाती  है परंतु राज्य सरकार को निलंबित नहीं किया जा सकता
  • आपातकाल के दौरान संसद को राज्य सुचि में दिए गए किसी भी विषय या विषयों पर किसी प्रकार का कानून बनाने का अधिकार है, लेकिन यह कानून आपातकाल समाप्त होने के छः महीने बाद समाप्त हो जाते हैं।
  • यदि आपातकाल के दौरन संसद सत्र में नहीं है तो राष्ट्रपति अध्यादेश जारी करके राज्य सुची के किसी भी विषय पर कानून बना सकते हैं।
  • आपातकाल की अवधि के दौरान राष्ट्रपति, राज्य और केंद्र के बीच संवैधानिक वित्तीय वितरण के प्रावधानों में संशोधन कर सकते हैं। यानी राष्ट्रपति, केंद्र द्वारा राज्यों को मिलाने वाले वित्त को घटा सकते हैं या बंद कर सकते हैं परंतु यह संशोधन उसी वित्तीय वर्ष तक जारी रहता है जिस वित्तीय वर्ष में आपातकाल लागू नहीं होता है या समपता हो जाता है।साथ ही, राष्ट्रपति के ऐसे हर आदेश को संसद के दोनों सदनों के समक्ष रखना होता है।
  • राष्ट्रपति द्वार वित्तीय मामलों मे  दिए गए किसी भी आदेश को संसद के दोनों सदनों के समक्ष रखना अनिवार्य है।

 लोकसभा और राज्य विधानसभा के जीवन पर प्रभाव

  • राष्ट्रीय आपातकाल की अवधि के दौरन लोकसभा अपनी सामान्य अवधि, जो की पाँच वर्ष की होती है, संसद के कानून द्वारा अधिकतम एक साल तक बढाई जा  सकती है( किसी भी समयावधि तक)।पांचवीं लोकसभा (1971-1977) का कार्यकाल दो बार एक वर्ष के लिए बढ़ाया गया। लेकिन आपातकाल की समाप्ति के बाद 6 माह से अधिक नहीं बढ़ाया जा सकता।
  • साथ ही साथ संसद किसी  भी राज्य की विधान सभा के सामान्य कार्यकाल, जो की 5 वर्ष का होता है, हर बार एक वर्ष तक (किसी भी समयावधि तक) बढ़ा सकती है, लेकिन आपातकाल की समाप्ति के बाद 6 माह से अधिक नहीं बढ़ाया जा सकता।

मौलिक अधिकारों पर प्रभाव

अनुच्छेद 358 एवं अनुच्छेद 359 मे वे प्रावधान दिये गए हें जिनका राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान का मौलिक अधिकारों पर प्रभाव पड़ता है। 

अनुच्छेद 358:- अनुच्छेद 358 में, अनुच्छेद 19 में दिए गए छः मौलिक अधिकारों को निलंबित करने का प्रावधान है।जब भी राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा होती है तब अनुच्छेद 19 में दिए गए सारे मौलिक अधिकार अपने आप ही नीलांबित हो जाते हैं उनके नीलांबन के लिए किसी अन्य तरह आदेश की आवश्यकता नहीं होती है। यानी कि राज्य किसी भीकानून बना सकता हैजो अनुछेद 19 में दिए गए छः मौलिक अधिकारों को छीन सके। राष्ट्रीय आपातकाल के ख़तम होने के बाद अनुच्छेद 19 के सारे मौलिक अधिकार स्वत: लागू हो जाते हैं, कोई भी कानून जो आपातकाल के दौरान बना हो और वह अनुछेद 19 से असंगत हो हो वहा समाप्त हो जाते हैं। राष्ट्रीय आपात्काल के दौरन विधायीका या  कार्यपालिका द्वार की गई  किसी भी कार्रवाई के लिए कोई उपचार उपलब्ध नहीं है यदि आपातकालीन अवधि  ख़त्म  हो भी जाए तो भी उसके लिए कोई उपचार उपलब्ध नहीं है।

44वें संशोधन अधिनियम,1978 द्वारा अनुच्छेद 358 की सीमा को प्रतिबंधित कर दिया। अनुच्छेद 19 मे दिये गए  छह मौलिक अधिकारों को केवल युद्ध या बाहरी आक्रमण के आधार लागू की गयी राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा समाप्त किया जा सकता है, सशस्त्र विद्रोह के आधार पर नहीं।

अनुच्छेद 359:- अनुच्छेद 359 में, अनुच्छेद 20 और अनुच्छेद 21 में दिए गए मौलिक अधिकारों को छोड़ कर बाकी अन्य मौलिक अधिकारों को निलंबित करने का प्रावधान है।अनुच्छेद 359 राष्ट्रपति को अधिकृत करते हैं राष्ट्रपति  आपातकाल के दौरान न्यायपालिका द्वारा मौलिक अधिकारों को लागू करने के अधिकार पर रोक लगा सकते हैं, यानी अनुच्छेद 359 के भीतर मौलिक अधिकार निलंबित नहीं होते लेकिन उनका प्रवर्तन निलंबित हो जाता है यानी की मौलिक अधिकार तो रहते हैं लेकिन उनके उपचार का अधिकार समाप्त हो जाता है। राष्ट्रपति के आदेश द्वारा किसी भी अवधि तक और देश के किसी भी हिस्से तक इन मौलिक अधिकारों को नीलंबित किया जा सकता है लेकिन उस आदेश को संसद के हर सदन में पारित होने की अवश्यकता होती है जब भी राष्ट्रपति द्वार आदेश जारी किया जता है तब राज्य किसी भी तरह का कानून बना सकता है या अधिकारी कार्रवाई कर सकता है जो भी निर्देशित मौलिक अधिकार को छीन सकती है। 

आपातकाल के दौरान बनाए गए किसी भी प्रकार के कानून या अधिकारिक कार्रवाही  को चुनौती नहीं दी जा सकती है कि वह एक विशिष्ट मौलिक अधिकार से असंगत है। आपातकाल की अवधि का दौरन दिए गए किसी भी तरह की कार्रवाई को आपतकाल की समाप्ति के बाद भी कोई उपचार उपलब्ध नहीं है।

राष्ट्रपति शासन

राष्ट्रपति शासन लागू करने का आधार क्या है?

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 355 में केंद्र सरकार का यह कर्तव्य है कि वह सुनिश्चित करें कि प्रत्येक राज्य सरकार संविधान के दिए गए प्रावधानों के तहत कार्य करें। यदि ऐसी परिस्थिती बन जाती है कि किसी राज्य की सरकार संवैधानिक तंत्र के तहत कार्य करने मे विफल हो जाती है तो इस परिस्थिती में केंद्र सरकार के पास संविधान के अनुच्छेद 356 के तहत यह अधिकार होता है कि वह राज्य की सरकार को स्वयं राष्ट्रपति द्वार संचलित करें। इसे सामान्य तौर पर  ‘राष्ट्रपति शासन‘ से संबोधित किया जाता है। इसे ‘राज्य आपातकाल‘ या ‘संवैधानिक आपातकाल‘ के भी कहा जाता है।

राष्ट्रपति शासन की घोषणा दो अनुच्छेदो के आधारों पर की जा सकती है,अनुच्छेद 356 और अनुच्छेद 365। अनुछेद 356 के तहत राष्ट्रपति को उद्घोषणा जारी करने का अधिकार प्राप्त है।  यदि राष्ट्रपति संतुष्ट है कि ऐसी परिस्थितयां बन गई है की जब कोई राज्य सरकार संविधान के प्रावधानों का पालन ना कर रही हो या उसके अनुरुप ना चल रही हो। तब राष्ट्रपति, राज्यपाल की रिपोर्ट प्रति या राज्य की रिपोर्ट  के आधार पर कार्यवाही कर सकते है।

अनुच्छेद 365 सुनिश्चित करता है कि जब भी कोई राज्य सरकार केंद्र सरकार द्वार दिए गए निर्देशों का पालन ना  करें या उसे उपयोग में लाने में सफल ना रहे तो राष्ट्रपति संतुष्ट हो जाते हैं कि ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न हो गई हैं जिनमें राज्य का शासन संविधान के प्रावधान हैं के अनुरुप चलने में सफल नहीं हो रहा है। 

संसदीय अनुमोदन एवं अवधि

  • जब भी किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने की उद्घोषणा जारी हो तो जारी उसके जारी होने से तारीख से लेकर 2 महीने के समय के अंतराल में दोनों सदनों द्वारा इसे पारित किया जाना चाहिए। 
  • यदि संसद के दोनो  सदनों द्वारा उद्घोषणा को अनुमोदित किया गया हो तो राज्य में अधिकतम छः माह तक ही राष्ट्रपति शासन जारी रह सकता है। राष्ट्रपति शासन को हर 6 महीनों  में मंजुरी प्राप्त करके अधिकतम  3 साल तक बढ़ाया जा सकता हैं। 
  • जब राष्ट्रपति शासन की उद्घोषणा जारी हो और उसके 2 महीने के अंतराल में लोकसभा भंग हो गई हो या लोकसभा का विघटन हो गया हो। ऐसी परिस्थिति मे  उद्घोषणा का जीवनकाल लोकसभा के पुनर्गठन के बाद पहली बैठक से 30 दिनों तक रहता है यदि इस बीच राज्यसभा ने इसे जारी रखने की मंज़ूरी दे दी हो।
  • राष्ट्रपति शासन की घोषणा करने वाला प्रस्ताव या इसे जारी रखने वाले प्रत्येक प्रस्ताव को संसद के किसी भी सदन में प्रस्तुत किया जा सकता है। इस प्रस्तव को प्रत्येक सदन द्वारा साधरण बहुमत से परित किया जाना अनिवार्य है।
  • राष्ट्रपति शासन को समाप्त करने के लिए राष्ट्रपति किसी भी समय एक उद्घोषणा जारी कर सकते हैं इसके लिए उन्हें संसद की मंजूरी की आवश्यकता नहीं है।

राष्ट्रपति शासन का क्या परिणाम क्या होता है?

जब भी किसी राज्य में ऐसी परिस्थिती आ जाए कि वहां राष्ट्रपति शासन लागू करना अनिवार्य हो तब राष्ट्रपति राज्य के संबंध में असाधारण शक्तियां प्राप्त कर लेते हैं:- 

  • राष्ट्रपति राज्य सरकार या राज्यपाल या ऐसा कोई कार्यकारी प्राधिकारी जो राज्य में हो उनकी सभी शक्तियां खुद ही निर्वहन करते है।
  • राष्ट्रपति ये सुनिश्चित कर सकते हैं कि राज्य सरकार या राज्य विधान सभा की शक्तियां संसद द्वार निर्वहन की जाएगी।
  • राष्ट्रपति राज्य की किसी भी निकाय को प्राप्त संवैधानिक शक्तियों को समापत कर सकते हैं।
  • जब भी किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू होता है तो राष्ट्रपति उस राज्य के मंत्री परिषद को बर्खास्त कर सकते हैं।
  • राज्य के राज्यपाल राष्ट्रपति की ओर से राज्य का प्रशासन चलाते हैं उनकी मदद के लिए राज्य का मुख्य सचिव या सलाहकार,जो राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया गया हो, उपस्थित रहता है।
  • जो भी कानून, संसद या राष्ट्रपति या ऐसे ही कोई निर्दिष्ट प्राधिकार द्वारा बनाया जाता है,  वह राष्ट्रपति शासन के समाप्त होने के उपरांत भी जारी रहते हैं। परंतु यदि राज्य विधानसभा पुनःस्थापित हो जाती है तो वह बनाए गए कानून को समाप्त कर सकती है। 

वित्तीय आपातकाल

घोषणा के आधार

संविधान में अनुच्छेद 360 में वित्तीय आपातकाल प्रावधान निर्देशित किए गए हैं।यदि राष्ट्रपति संतुष्ट है कि देश में ऐसी परिस्थिती बन गई है जिसका कारण देश या उसके किसी भी क्षेत्र के वित्तीय या ऋण  से संबन्धित कोई समस्या  या खतरा उत्पन्न हो रहा है, तो राष्ट्रपति के पास यह पूरा अधिकार है कि देश या देश के किसी भी हिस्से मे अनुच्छेद 360 के तहत  वित्तीय आपातकाल लागू कर सकते हैं

38 वे संवैधानिक संशोधन अधिनियम,1975 में यह स्पष्ट किया गया था कि राष्ट्रपति की संतुष्टि, वित्तिय आपातकाल लागू करने के मामले में, अंतिम एवं निर्णायक है और इसे किसी भी आधार पर किसी भी न्यायालय में प्रश्न नहीं किया जा सकता है। परंतु 44वें संशोधन अधिनियम, 1978 द्वार इस प्रावधान को हटा दिया गया और कहा गया कि राष्ट्रपति की संतुष्टि न्यायिक समीक्षा से ऊपर नहीं है या उसकी न्यायिक समीक्षा नहीं की जा सकती।

संसदीय अनुमोदन एवं अवधि

जब भी वित्तीय आपातकाल की घोषणा करने वाली उद्घोषणा जारी हो  उसके जारी होने से तारीख से लेकर 2 महीने के समय के अंतराल में दोनों सदनों द्वारा इसे पारित किया जाना चाहिए। 

जब वित्तीय आपातकाल  की उद्घोषणा जारी हो और उसके 2 महीने के अंतराल में लोकसभा भंग हो गई हो या लोकसभा का विघटन हो गया हो। ऐसी परिस्थिति मे  उद्घोषणा का जीवनकाल लोकसभा के पुनर्गठन के बाद पहली बैठक से 30 दिनों तक रहता है यदि इस बीच राज्यसभा ने इसे जारी रखने की मंज़ूरी दे दी हो।

यदि एक बार वित्तीय आपातकाल का अनुमोदन दोनों सदनो से अनुमोदित हो जाता है तो इसकी समाप्ती की कोई अधिकतम सीमा नहीं है। यह अनिश्चितकाल तक जारी रहती है, जिसके लिए संसदीय अनुमोदन की आवश्यकता नहीं होती है। 

वित्तीय आपातकाल के प्रस्ताव को साधारण बहुमत से पारित किया जा सकता है, जो संसद के किसी भी सदन मे जारी किया जा सकता है।

वित्तीय आपातकाल की उद्घोषणा को राष्ट्रपति किसी भी समय बाद की अन्य उद्घोषणा द्वारा रद्द कर सकता है। जिसके लिए संसदीय अनुमोदन की आवश्यकता नहीं होती है। 

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