
भारतीय संविधान की प्रस्तावना
किसी भी देश के लिए उसका संविधान सबसे महत्वपूर्ण होता है। संविधान से हम देश में चल रही व्यवस्थाओं और उनके मूल सिद्धांतों को समझ सकते हैं। संविधान की प्रस्तावना एक ऐसा दस्तावेज़ होती है, जो संविधान के मूल सिद्धांतों को दर्शाती है।
आज हम Preamble of the Constitution of India को विस्तार से जानेंगे।
परिचय
संयुक्त राज्य अमेरिका का संविधान पहला ऐसा संविधान है जिसमें प्रस्तावना का प्रयोग किया गया है। भारत के संविधान की प्रस्तावना आज़ाद भारत के पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू द्वारा संविधान सभा में 13 दिसंबर 1946 को दिए गए उद्देश्य प्रस्ताव से ली गई है, जिसे संविधान सभा द्वारा 22 जनवरी 1947 को स्वीकृत किया गया।
प्रस्तावना संक्षेप में:
- प्रस्तावना में कहा गया है कि संविधान भारत के लोगों से अपना अधिकार प्राप्त करता है।
- यह दर्शाता है कि भारत एक संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक और गणतांत्रिक राज्य व्यवस्था वाला देश है।
- यह न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व को उद्देश्य के रूप में निर्दिष्ट करता है।
- यह दिखाता है कि संविधान को अपनाने की तारीख 26 नवंबर 1949 है।
प्रस्तावना में लिखे महत्वपूर्ण शब्दों का अर्थ
- संविधान के अधिकार का स्रोत
“हम भारत के लोग” का अर्थ है कि भारत की जनता ही सत्ता का स्रोत है, जैसा कि एक लोकतांत्रिक देश में होना चाहिए। संविधान को देश की जनता द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित सदस्यों द्वारा सर्वसम्मति से अपनाया गया है। - संप्रभुता
भारत एक संप्रभु देश है। इसका अर्थ है कि भारत न तो किसी अन्य राष्ट्र की पराधीनता में है और न ही किसी अन्य देश का अधिपत्य है, बल्कि एक स्वतंत्र राज्य है। इसके ऊपर कोई भी प्राधिकार नहीं है। भारत अपनी आंतरिक और बाहरी नीतियों के लिए किसी बाहरी ताकत पर निर्भर नहीं है। - समाजवादी
यह 42वें संवैधानिक संशोधन द्वारा शामिल किया गया। भारत एक लोकतांत्रिक समाजवाद को अपनाता है। भारत एक मिश्रित अर्थव्यवस्था वाला देश है, जिसमें निजी और सार्वजनिक क्षेत्र साथ मिलकर काम करते हैं, न कि साम्यवादी समाजवाद जहाँ राज्य ही उत्पादन को नियंत्रित करता है। - धर्मनिरपेक्ष
यह 42वें संवैधानिक संशोधन द्वारा शामिल किया गया है।
भारतीय धर्मनिरपेक्षता के मायने किसी भी देश के धर्मनिरपेक्षता से अलग हैं। अन्य देशों में धर्मनिरपेक्षता का अर्थ है कि राज्य किसी धर्म में हस्तक्षेप नहीं कर सकता। परंतु भारतीय संविधान धर्मनिरपेक्षता की सकारात्मक अवधारणा का प्रतीक है। हमारे देश में सभी धर्मों को समान दर्जा और राज्य से समर्थन प्राप्त है। - लोकतांत्रिक
भारतीय संविधान प्रतिनिधिक संसदीय लोकतंत्र का प्रावधान करता है। इसके तहत कार्यपालिका अपनी सभी नीतियों और कार्यों के लिए विधायिका के प्रति उत्तरदायी होती है।
डॉ. अम्बेडकर के अनुसार:- “राजनीतिक लोकतंत्र तब तक टिक नहीं सकता जब तक उसके आधार पर सामाजिक लोकतंत्र न हो। सामाजिक लोकतंत्र का अर्थ है जीवन का एक तरीका जो स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे को पहचानता है।” - गणराज्य
गणराज्य एक ऐसी व्यवस्था होती है जिसमें देश की संप्रभुता किसी राजा के हाथों में नहीं होती, बल्कि चुने गए प्रतिनिधि के हाथों में होती है। भारत एक गणतंत्र है जहाँ देश का प्रतिनिधि (राष्ट्रपति) चुनाव द्वारा चुना जाता है। - न्याय: सामाजिक, आर्थिक, और राजनीतिक
प्रस्तावना में ‘न्याय’ शब्द तीन अलग-अलग रूपों में है- सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक।- राजनीतिक न्याय, मौलिक अधिकारों और राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों के विभिन्न प्रावधानों के माध्यम से सुरक्षित किया गया है।
- सामाजिक न्याय जाति, रंग, नस्ल, धर्म, लिंग आदि के आधार पर किसी भी सामाजिक भेदभाव के बिना सभी नागरिकों के साथ समान व्यवहार करना है।
- आर्थिक न्याय राज्य को आर्थिक कारकों के आधार पर लोगों को न्याय दिलाने से वंचित नहीं रख सकता।
- स्वतंत्रता: विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म या उपासना की
स्वतंत्रता का अर्थ है व्यक्तियों की गतिविधियों पर किसी तरह के प्रतिबंध का ना होना और व्यक्तिगत विकास के लिए उचित अवसर प्रदान करना। - समानता प्रतिष्ठा और अवसर की
समानता का अर्थ है समाज के किसी भी वर्ग के लिए विशेषाधिकारों का अभाव और बिना किसी भेदभाव के सभी व्यक्तियों के लिए पर्याप्त अवसरों का प्रावधान। - बंधुत्व
बंधुत्व यानी भाईचारे की भावना।
- मौलिक कर्तव्य (अनुच्छेद 51 ए) के अनुसार, भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह विविधताओं से परे भारत के सभी लोगों के बीच सद्भाव और समान भाईचारे की भावना को बढ़ावा दे।
- बंधुत्व दो चीजें सुनिश्चित करता है – व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता।
प्रस्तावना का महत्व।
प्रस्तावना संविधान के मौलिक एवं दार्शनिक मूल्यों को दर्शाती है।
के.एम. मुंशी के अनुसार, ‘प्रस्तावना हमारे संप्रभु, लोकतांत्रिक गणराज्य की कुंडली’ है।
क्या प्रस्तावना संविधान का हिस्सा है?
प्रस्तावना संविधान का अभिन्न अंग है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के कई फैसलों में प्रस्तावना को संविधान का हिस्सा बनाए जाने पर अलग-अलग मत दिए गए हैं।जाने पर अलग-अलग मत दिए गए हैं।
- बेरुबारी यूनियन मामला (1960): प्रस्तावना संविधान का हिस्सा नहीं है।
- केशवानंद भारती मामला (1973): सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि प्रस्तावना संविधान का अभिन्न अंग है।
- एलआईसी इंडिया मामला (1995): प्रस्तावना संविधान का अभिन्न अंग है।
क्या प्रस्तावना में संशोधन किया जा सकता है?
केशवानंद भारती मामले (1973) में यह प्रश्न उठा कि क्या अनुच्छेद 368 के तहत प्रस्तावना में संशोधन किया जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने माना कि प्रस्तावना संविधान का एक हिस्सा है। कोर्ट ने बेरुबारी यूनियन (1960) में दी गई राय को गलत करार दिया और कहा कि प्रस्तावना में संशोधन किया जा सकता है, लेकिन इसमें निहित ‘बुनियादी सुविधाओं’ में संशोधन नहीं किया जा सकता।
प्रस्तावना में अब तक केवल एक बार संशोधन किया गया है। 42वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम 1976 द्वारा प्रस्तावना में तीन नए शब्द- समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और अखंडता जोड़े गए हैं, जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने वैध माना।